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Showing posts from January 20, 2019

ये अवगुनिया चार बडे सरताज हो गये,,

*चार कौवे चार होए* पं. भवानी प्रसाद मिश्र यांची ही कविता आजच्या काळात अगदी फिट बसते *कवी हे द्रष्टे असतात जो न देखे रवी वो देखे कवी* हे उगाच नाही *आज प्रजासत्ताक खरच आहे का❓* खरोखर हा देश प्रजेच्या मर्जी वर चालतोय कि ,,,,, हा प्रश्न या निमित्ताने विचारावासा वाटतो,, *चार कौवे,,,,* *बहुत नही सिर्फ चार कौवे थे काले* *उन्होने ये तय कि सारे उडनेवाले* *उनके ढंग से उडे रुके खाये और गाये* *वो जीसको त्योहार कहे सब उसे मनाये,,* *कभी कभी जादू हो जाता है दुनिया मे* *दुनियाभर के गुण दिखाई देते है अवगुनिया मे* *ये अवगुनिया चार बडे सरताज हो गये* *इनके नौकर चिल गरुड और बाज हो गये* हंस मोर चातक गौरेये किसी गीनती मे हाथ बांधकर खडे हो गये सब विनती मे हुक्म हुवा चातक पंछि रट ना लगाये पिऊ पिऊ को छोड कौवे कौवे गाये बिस तरह कि काम छोड दिये गौरयो को खाना पिना मौज उडाणा छुट भैयो को *कौवो कि ऐसी बन आयी पांचो घी मे* *बडे बडे मनसुबे आये उनके जी मे* *उडणे तक के नियम बदल कर ऐसें ढाले* *उडणे वाले सिर्फ गये बैठे ठाले* आगे क्या हुवा सुनांना बहुत कठीण है ये दिन कवी का नही चार कौवो का दिन ह